कुछ कहानियाँ अधूरी है……

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कुछ कहानियां अधूरी हैं…

किसी मोड़ पर,
जिन्हें छोड़ कर,
कभी आगे बढ़ चला था।

वो आज भी आ जाती हैं आँखों में,
अधबुने सपने की तरह।

वो सपना आज तक चुभता है,
बिखरे शीशे सा, पलकें बंद करने पर।

वो किस्से धुंध की तरह घिर जाते हैं,
मेरे चारों तरफ।
और हमेशा दिखने वाली मेरी ‘मंजिल’,
आंखो से ओझल होने लगती है।

बड़े यकीं से उठने वाले मेरे कदम,
लड़खड़ाने लगते हैं। 

क्यूँ…???
ये एहसास होता है की,
ज़िन्दगी का एक टुकड़ा आज भी पड़ा है,

वहाँ,,,,,,,

जहाँ, कुछ कहानियां अधूरी पड़ी हैं।

“जगजीत”

लगता है “जगजीत” के बस तुम बात दीवानी करते हो,
कभी कभी जो तुम हमसे कुछ बात पुरानी करते हो।।

अरे, चौराहे पर लगा पुराना वो दरख़्त भी रो पड़ता है,
इतनी शिद्दत से से क्यूँ उसकी याद ए जवानी करते हो।।

अभी अभी तो मारा है इस दिल को हमने मुश्किल से,
चाहत की बातों से फिर क्यूँ इसको जिंदा करते हो।।

कभी कभी हम दिल के टुकड़े उठा उठा के थकते हैं,
क्यूँ आखिर हमसे फिर तुम वो एक कहानी कहते हो।।

किस्से तुम बतलाते हो जो ‘अम्मी’ ‘दादी’ ‘नानी’ के,
क्या बोलें इन सूखी आँखों में फिर पानी भरते हो।।

और, याद दिला कर पहले पहले प्यार की, जो था छुपा कहीं,
छेड़ के टूटे तार इस दिल के, क्यूँ मनमानी करते हो।।

कभी कभी जब तुम हमसे कुछ बात पुरानी करते हो।

दिल्ली की गलियों में…

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“दिल खुद को ज़रा संभाल, के फिर चल दिल्ली की गलियों में।
अब मत कर कोई सवाल , के फिर चल दिल्ली की गलियों में।

कुछ खुले दिलों को देख ज़रा उन तंग से चौबारों में।
बस बिछी मुहब्बत देख ज़रा चौकों पे बाजारों में।।

जज्बों की खड़ी मिसाल देख उन ऊंची मीनारों पे।
बिखरे चाहत के लफ्ज़ देख महलों की दीवारों में।

दरिया सा बहता एक जहाँ पर ज़रा समंदर से गहरा।
और कर देता आशिक दिल भी है जिसकी मौजों पे पहरा।

‘मिर्ज़ा’ के देख ख्याल, के फिर चल दिल्ली की गलियों में।
उल्फत की चली बयार, के फिर चल दिल्ली की गलियों में।

है हुआ बहुत अर्सा के यादें भी अब धुंधलाई हैं,
उस बीते हुए हसीं कल की बस बाकी अब परछाई है।

उन यादों का है सवाल, के फिर चल दिल्ली की गलियों में।
ताज़ा करने वो हाल , के फिर चल दिल्ली की गलियों में।”

मश्विरा…

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आज फिर इश्क़ शुमार पे आया है अपने,
ख़ाली पैमानों को मुहब्बत से फिर भर जाने दो.

मौज-ए-तूफ़ान तो कई बार ही गुज़री होगी,
मौज-ए-उल्फत को भी आज गुज़र जाने दो.

संगदिल यूँ न बनो बुतपरस्तों की तरह,
कलमा-ए-आशिकी फिर दिल में उत्तर जाने दो.

जाने-अंजाने

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वो तेरा कहकर भी नहीं कहना,
वल्लाह अदा क्या है।
जब  बात नहीं कुछ तो,
फिर राज़ रखा क्या है।

फिर आज ये दिल निकला खाली ही रहगुज़र से,
के मिलने को इस शहर में तेरे बाद रखा क्या है।

तन्हा ही गुज़र जाएगी बाक़ी  जो ज़िन्दगी है,
चंद लम्हों के अलावा , अब पास रखा क्या है।

जब हो गए अनजान ही एक दुसरे की खातिर,
तार्रुफ़ नया अब करने को ख़ास रखा क्या है।

सफर

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उगेगा फिर वो सूरज

जो बुझा था कल समंदर में
के मंज़िल तक पहुँचने का सफर
ये रोज़ होता है.

बाबस्त इसी किस्से से दुनिया की किताबें हैं
गुज़रता पर जो है इस से, वो बस खामोश होता है.

जो पाता और खोता है यहाँ पर रोज़ मंज़िल को,
कहे वो क्या शिकस्तों से हमेशा दोज़ होता है.

नसीहत बन सहारा रस्ते का चल नहीं पाती,
के बस राही  के कन्धों पर सफर का बोझ होता है.

ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी

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कहें क्या सोचते हैं ये

ज़रा हम भी ज़रा तुम भी,
अजब सी उलझनों में हैं ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी
हैं लब खामोश फिर भी दिल में है दरिया शिकायत का,
हैं कर बैठे दफ़न जिसको, ज़रा हम भी ज़रा तुम भी.

दीवारे रंज की हैं बस घिरी चारों तरफ अब तो,
के तन्हा अंजुमन में हैं ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी.

कदम जो साथ में रक्खे थे राह-ए-उल्फतों पर अब,
नहीं क्यों ढूंढ पाते हैं ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी.

के खिंच कर आ भी सकते थे बंधे कच्चे से धागे से,
जो गफलत छोड़ देते कुछ ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी.

जो हैं अब फासले मौजूद वो कम हो भी सकते थे,
जो करते ख़ुदपरस्ती कम ज़रा हम भी, ज़रा तुम भी.

मुद्दत

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मुद्दतों बाद इस दिल को फिर सुकून आया,
गया गुज़र था जो, वो लौट के जूनून आया
तेरा आना शहर में ‘पाकीज़ा’ अकेले न हुआ,
के तेरे साथ लौट कर रागों में खून आया.

तलाश…

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पराये इस शहर में दिल चला फिर ढूंढने अपना कोई,
तलाश-ए-अंजुमन फिर रह गयी बेकार ही, बेज़ार ही.

किया क्या कुफ्र जो नादान ने खुद को ज़रा बहला लिया,
के बस चाहा था करना ज़िन्दगी गुलफाम ही, गुलज़ार ही.

मुक़द्दर के लिफाफे में था क्या रक्खा मेरी खातिर सनम,
नियामत बताकर दे गया सुलगे हुए अंगार ही.

रह-ए-गुज़र पर थे मिले जो चेहरे मुझको यहाँ,
ग़म बांटने के बस लगे थे सबपे इश्तेहार ही.

मिला न कोई अपना इस भरे बाजार की सी भीड़ में,
चला था साथ जिसके रह, गयी बस साथ में तन्हाई ही.

हसरत

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ये हसरत फिर उठी दिल में,

ज़माने की तपिश सहकर

के पा लूँ मैं  सुकून-ए-दिल,
तेरी झीलों सी आँखों में

सिमट जाऊं तेरी ज़ुल्फ़ों की काली सी मैं चादर में,
फनाह कर दूँ खुदी को भी, के बस तेरी पनाहों में

तेरे दामन के पाकीज़ा से साये में ज़रा छुपकर,
वफ़ा ही क्या, मिटा दूँ खुद को मैं तेरी जफ़ाओं में

जहाँ सारा मुझे पाने की ख्वाहिश तो नहीं है अब,
मगर पा जाऊं सब कुछ बस जो तू हो मेरी बाँहों में

यकीं है मांगने से कुछ नहीं मिलता ज़माने में,
आरज़ू दीद की तेरी लिए बैठा हूँ राहों में
खलिश बस है यही दिल में तुझे मिलने की चाहत की,
जो बाकि है सनम अब तक, बरसती है घटाओं में.